Tuesday 4 August 2015

कुछ अनकही बातें

कुछ अनकही सी बातें हैं ,
सोचता हूँ बोल दूँ ,पर किससे ?
कौन सुनेगा,है भी कोई साथ नही। . 
कोई थी,अब नहीं है। 

नज़रों से लूका -छिपी का खेल होता था। 
वो करीब आते थे, लौट जाते थे,
मैं सोचता था कहूँ कैसे,
कहीं साथ भी न छूट जाए। 

हमने भी मन ही मन चाहा था उन्हें,
सोचा इशारो में कह देंगे। 
पर खता हुई हमसे,
ये सोचा ही नहीं वो समझेंगे भी या नहीं?

फिर सोचा  क्यों न बोल दू,
उनसे बात की और मिलने बुलाया।
वो भी मिलना चाहते थे, 
उन्हें भी कुछ कहना था शायद ?
  
मिलने की जगह जा रहा था,
रास्ते में भीड़ देखी, 
पर रुका नहीं।
हमारी मंज़िल कुछ आगे थी।

काफी इंतज़ार किया,पर वो आये नहीं। 
मायुश सा  मैं लौटा, रास्ते में  भीड़ देखी। 
इसबार पास जाके देखा तो खून से लतपथ चेहरा दिखा,
तब से सोच में हूँ ?

कुछ अनकही सी बातें हैं ,
सोचता हूँ बोल दूँ ,पर किससे ?
कौन सुनेगा,है भी कोई साथ नही। . 
कोई थी,अब नहीं है। 





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